Sam Bahadur Review पिछले कुछ दशकों से बॉलीवुड में देखी गई सबसे बड़ी फिल्में अब भी लोगों के जहन में हैं। ऐसे में ‘एनिमल’ और ‘सैम बहादुर’ दोनों स्क्रीन पर एक साथ रिलीज हो चुकी हैं। जहां ‘एनिमल’ एक पिता और पुत्र के रिश्ते की काल्पनिक कहानी है, वहीं ‘सैम बहादुर’ भारत के पहले फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ के वास्तविक जीवन की कहानी है।
फिल्म में उनके पूरे जीवन को दिखाया गया है, एक युवा अधिकारी से लेकर ऊंची सीढ़ियां चढ़ने तक और अंत में बांग्लादेश को बनाने में उनका खास रोल रहा। इस रोल को करने में विक्की कौशल ने अपना जी-जान लगा दिया है। फिल्म में फातिमा सना शेख और सान्या मल्होत्रा भी लीड रोल्स में हैं। आइए देखें लोग फिल्म के बारे में क्या कह रहे हैं।
दमदार एक्टिंग-परफॉर्मेंस
सैम के किरदार को उसके सच्चे रंगों में उतारने का कमाल जिस तरह विक्की कौशल ने किया है, वो आपको स्क्रीन से चिपकाए रखता है.विक्की कौशल अब अपने टैलेंट को तराशने के उस लेवल तक पहुंच चुके हैं, जहां शायद ही कभी उनसे कोई गलती होती नजर आए. ‘सैम मानेकशॉ’ भी उनके इसी टैलेंट का शाहकार है. फिल्म में, कहानी में, स्क्रीनप्ले में गलतियां नजर आ सकती हैं, मगर विक्की के काम में चूक की कोई गुंजाइश नहीं है.
Sam Bahadur Review ढाई घंटे लंबी फिल्म है, जो ज्यादातर समय आपको नहीं महसूस होता. फर्स्ट हाफ में फिल्म थोड़ी ज्यादा तेज चलती है लेकिन शायद इसलिए कि उसमें सैम की लाइफ के कई हिस्से तेजी से कवर होते हैं. इंटरवल के बाद फिल्म जैसे ही थोड़ी स्लो होती लगती है वहां ‘बढ़ते चलो’ गाना आ जाता है. भारतीय सेना की अलग-अलग रेजिमेंट्स के युद्धघोष इस गाने में सुनाई देते हैं और रोंगटे खड़े कर देते हैं. बॉलीवुड के लेजेंड गीतकार गुलजार ने इस बार गीत ऐसा लिखा है कि पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं
इंदिरा और मानेकशॉ के बीच वैचारिक मतभेद की कहानी
कहानी के पहले हिस्से को सैम की निजी जिंदगी से भी बुना गया है, जहां उनकी शादी सिल्लू (सान्या मल्होत्रा) से होती है। उन्हें सेना के अंदर की राजनीति का शिकार भी होना पड़ता है। उन पर केस चलाया जाता है। साथ ही सैम को दूसरे विश्वयुद्ध में भाग लेते हुए भी दिखाया गया है। यहां हमें यह देखने भी मिलता है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू (नीरज काबी) सैम की बहादुरी और दूरदर्शिता के कायल थे।
दूसरे भाग में कहानी में इंदिरा गांधी (फातिमा सना शेख) का आगमन होता है। इंदिरा और मानेकशॉ के बीच वैचारिक मतभेद भी है, मगर अंततः मानेकशॉ उन पर भी अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब होते हैं। पाकिस्तान में होने वाले तख्तापलट से आशंकित होकर जब इंदिरा गांधी उनसे पूछती हैं कि कहीं वे हिंदुस्तान में भी ऐसा करने की तो नहीं सोच रहे, तब वे दो टूक जवाब देते हैं कि इंदिरा को डरने की जरूरत नहीं। उन्हें राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं। वे अपनी राजनीति करें और उन्हें उनका काम करने दें।
1971 में बांग्लादेश को पाकिस्तान से आजाद करने की लड़ाई के दौरान इंदिरा चाहती हैं कि मानेकशॉ मार्च में धावा बोल दें, मगर वे बेबाक होकर मना करते हुए कहते हैं कि अभी उनकी सेना युद्ध के लिए तैयार नहीं है। वे 5 दिसंबर की तारीख देकर युद्ध की तैयारी के लिए वक्त मांगते हैं। समय आने पर इंदिरा जब उनसे पूछती हैं कि क्या वे युद्ध के लिए तैयार हैं? तब उनका जवाब होता है, ‘मैं हमेशा तैयार हूं स्वीटी।’
Sam Bahadur Review’ में 1971 की लड़ाई का कहानी
मानेकशॉ को हीरो बनाने के चक्कर में अन्य किरदार फीके पड़ गए हैं। युद्ध के दृश्यों में तनाव और थ्रिल की कमी नजर आती है, हां 1971 की लड़ाई देखने योग्य है। हालांकि मेघना ने फिल्म में कई जगह वास्तविक फुटेज का इस्तेमाल करके कहानी को ऑथेंटिक कवच पहनाने की कोशिश जरूर की है। जय आई पटेल की सिनेमैटोग्राफी और नितिन वैद्य का संकलन ठीक-ठाक है। शंकर-एहसान-लॉय के संगीत में गुलजार के लिखे गीत, ‘बढ़ते चलो, बंदा, दम है तो आजा अच्छे बन पड़े हैं।
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